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No paeans. No praise. No panegyrics. No homage. No hurrahs. Just two poems....
बे यारो मददगार ही काटा था सारा दिन
कुछ ख़ुद से अजनबी-सा, कुछ तनहा उदास सा
साहिल पे दिन बुझा के मैं लौटा था फिर वहीँ
सुनसान सी सड़क के इस खाली मकान में
दरवाजा खोलते ही मेज़ पर किताब ने
हलके से फडफडा के कहा -
''देर कर दी, दोस्त!''
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रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
कुछ एक पल के
कुछ दो पल के
कुछ परों से हलके होते हैं
बरसों के तले चलते चलते
भारी भरकम हो जाते हैं
कुछ भारी भरकम बर्फ के से
बरसों के तले गलते गलते
हलके फुल्के हो जाते हैं
नाम होते हैं कुछ रिश्तों के
कुछ रिश्ते नाम के होते हैं
रिश्ता अगर वो मर जाए भी
बस नाम से जीना होता है.....
2 comments:
अच्छी कवितायें हैं - हिन्दी में और भी क्यों नहीं लिखते।
क्या स्कवॉश आपका प्रिय खेल है?
Unmukt, those lines are Gulzar. Not mine! (I wish I wrote that well!). Yes, I love playing squash.
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